वर्ष 2013 में एक सुनियोजित साजिश के तहत पूज्य बापूजी पर सूरत की एक महिला के माध्यम से 12 वर्ष पूर्व ऐसी-ऐसी घटना हुई ऐसी कल्पित कहानी गढ़कर आरोप लगवाया जाता है । 9 वर्ष तक अदालत की प्रक्रिया चलती है और इस दौरान ऐसे अनेक तथ्य सामने आते हैं जिनसे पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि लगाया गया आरोप सरासर गलत है । लेकिन इस मामले में अदालत के निर्णय को सुनकर इस केस के तथ्यों को जाननेवाले लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं…

सज़ा का आधार महिला का विरोधाभासी बयान

7 लोगों पर लगा एक साथ जुर्म करने का आरोप। सातों के खिलाफ कोई सबूत नहीं । 6 सहआरोपी बाइज्जत बरी, लेकिन 1 आरोपी को दो अलग-अलग धाराओं में मिलती है आजीवन कारावास की सजा । जिन सबूतों को मानते हुए 6 आरोपियों को बरी किया गया उन्हीं सबूतों को 1 आरोपी को सज़ा सुनते वक्त नज़र अंदाज़ किया गया ।
अहमदाबाद सेशन कोर्ट द्वारा लड़की के बयान में विरोधाभास को मानते हुए सहारोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया जाता है लेकिन वहीं विरोधाभास संत श्री के लिए नही माना गया और बापूजी को आजीवन कारावास की सजा दी गई ।

एक ही सबूत किसी के लिए मानना और किसी के लिए न मानना, यह कानून के प्रस्थापित सिद्धांतो के विरुद्ध है । जिस कहानी के आधार पर केस चला, वो कहानी झूठी साबित हुई तो पूज्य बापूजी को आजीवन कारावास की सजा क्यों?

सगी बहन ने बतायी हकीकत

महिला की सगी बहन ने अदालत में बताया कि ‘मैं सपरिवार हर वर्ष गुरुपूर्णिमा व दीपावली पर अहमदाबाद आश्रम में जाती थी और मैं व मेरी माँ बहन के साथ ही महिला आश्रम में रुकती थीं । हम उसे घर चलने को कहते थे तो मना करती थी । यदि शिकायतकर्त्री के कथनानुसार ऐसी कोई तथाकथित अवांछित घटना हुई होती तो उसकी माँ और बहन, जो उसके साथ ही जाकर रहती थीं उनको उसने बताया होता या उनको अवश्य पता चलता ।

कल्पित कहानी, बयानों में कई विरोधाभास

शिकायतकर्त्री महिला दो महिलाओं का नाम बताती है कि वे उसके साथ अन्य 10 महिलाओं को 2001 में बापूजी के पास वक्ता के रूप में चयन के लिए ले गयी थीं जबकि धारा 164 के अंतर्गत दिये अपने बयान में इसी तथाकथित वृत्तांत में वह तीसरी ही महिला का नाम बताती है कि वह 2002 में वहाँ लेकर गयी थी ।
शिकायतकर्त्री कहती है कि गुरुपूर्णिमा 2001 (जुलाई 2001) में मुझे वक्ता बनाने के लिए चयन हेतु बापूजी के पास ले जाया गया, उसके बाद मेरे साथ गलत काम किया गया । हकीकत यह है कि 26 जनवरी 2001 को भुज में भूकम्प आया था तब उसने वहाँ प्रवचन किये थे । यह बात उसने स्वयं कबूल की है । अर्थात् वह पहले से ही वक्ता थी और जिन अन्य महिलाओं को वक्ता के चयन के लिए ले जानेवाली बात उसने कही है उनमें से अधिकतर बहनें सन् 2000 से पहले से ही वक्ता के रूप में सेवा देती थीं । स्पष्ट है कि शिकायतकर्त्री द्वारा कही गयी बात गलत है । कहीं वह बोलती है कि गुरुपूर्णिमा के दिन उसके साथ गलत हुआ, कहीं बोलती है गुरुपूर्णिमा के दूसरे दिन ऐसा हुआ, कहीं गुरुपूर्णिमा के 5-6 दिन बाद की तो कहीं जन्माष्टमी के दिन की तथाकथित बात बताती है… कुल मिला के उसका कोई स्टैंड ही नहीं है ।

क्यों ? क्योंकि उसने अन्य षड्यंत्रकारियों के साथ मिलकर काल्पनिक कहानी बनायी है । तो शिकायतकर्त्री के कथनों में कदम-कदम पर विरोधाभास है । उसके कथन विरोधाभासी होने से अन्य आरोपियों को निर्दोष छोड़ दिया गया लेकिन बापूजी के लिए ऐसे कई विरोधाभासी कथनों को मान्य नहीं किया, यह सबको हैरत में डालनेवाली बात है !

बयान बदलने की अर्जी से हुआ खुलासा

आरोपकर्त्री ने स्वयं गांधीनगर अदालत में अर्जी डाली थी कि उसे बयान बदलना है पर उसकी अर्जी नामंजूर हो गयी । इस फैसले को उच्च अदालत में चुनौती देने हेतु उसने जो अर्जी बनवायी थी उसकी एक प्रति अदालत के रिकॉर्ड पर है । उसमें उसके खुद के हस्ताक्षर हैं और वह नोटराइज्ड है । उसमें लिखा है कि उसके धारा 164 के बयान में गलत लिखा गया है । वह बयान उसने डर के कारण दिया था और उस समय की परिस्थिति के वश होकर दिया था । शिकायत में जैसा लिखा है वास्तव में वैसा किसी भी आरोपी ने कुछ नहीं किया है । अतः वह फिर से बयान देना चाहती है ।
तथाकथित घटना के बाद वर्षों तक वह आश्रम में रही और विभिन्न शहरों में जाकर अपने प्रवचनों में बापूजी का गुणगान करती रही, इस दौरान वह अपने घर भी जाती थी ।
यदि ऐसा उसके साथ होता तो घर से वापस क्यों आती ? माँ व बहन को उसने आखिर तक कुछ क्यों नहीं बताया ?
अब सवाल उठता है कि उसने यह सब क्यों किया ? दरअसल 2006 में उसकी लापरवाही से एक ऐसा कार्य हुआ था जो आश्रम की गरिमा के खिलाफ था, जिसके लिए बापूजी ने उसको जाहिर में उसके हित के लिए डाँटा था । बापूजी की डाँट का मुझे बहुत बुरा लगा, उसके बाद मैंने आश्रम छोड़ने का निश्चय किया । यह बात खुद महिला ने अपने बयान में कही है ।

ऐसे बुना गया षड्यंत्र का जाल

काफी सालों से कई लोग इकट्ठे हो के अलग-अलग साजिशें करके आश्रम व बापूजी के खिलाफ फर्जी केस करने का प्रयत्न कर रहे थे । शिकायत करने से पहले शिकायतकर्त्री महिला, श्री नारायण साँईं पर आरोप लगानेवाली महिला व उसका पति – ये तीनों इंदौर में जाकर एक ऐसे व्यक्ति से मिले थे जिसके होटल में 67 लड़कियाँ पायी गयी थीं, जिनसे वह देह-व्यापार और फिर ब्लैकमेलिंग आदि गलत काम करवाता था । उसके ऊपर 45 से भी अधिक गम्भीर आक्षेपवाली शिकायतें हो चुकी हैं । उससे मिलने की बात श्री नारायण साँईं पर आरोप लगानेवाली महिला के पति ने अदालत में स्वीकार की है । महिला का आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति से मिलना-जुलना किस बात को दर्शाता है ?

इंदौर के एक दूसरे व्यक्ति व अन्य लोगों के स्टिंग ऑपरेशन के भी डॉक्युमेंट्स, रिकॉर्डिंग्स अदालत में पेश किये गये थे । उनसे प्रथम दृष्ट्या स्पष्ट हो रहा था कि ये पूरे केस जो हो रहे थे, पूरी जो साजिश थी वह सब ये लोग मिलकर आश्रम और बापूजी के खिलाफ कर रहे थे । यह केस झूठा है, पूरी तरह बोगस है ।

एकतरफा जाँच

आरोपकर्त्री द्वारा 4-10-2013 को जहाँगीरपुरा पुलिस स्टेशन में एफ.आई.आर. की गयी थी जबकि रिकॉर्ड पर 6-10-2013 की नयी एफ.आई.आर. थी, जिसके ऊपर पूरा केस चलाया गया । 4-10-2013 की शिकायत को रिकॉर्ड पर लाना यह पुलिस की जिम्मेदारी थी लेकिन संदिग्धरूप से इसको दबा दिया गया । इससे स्पष्ट है कि बापूजी को फँसाने के लिए 6 तारीख को एक ड्राफ्टेड (बनावटी) शिकायत तैयार की गयी ।

केस के एक गवाह का विडियो बयान अदालत में रखा गया था । विडियो देखकर स्पष्टरूप से पता चल रहा है कि पहले उसने जो बताया वह आरोपकर्त्री महिला की कहानी का समर्थन नहीं कर रहा था, बाद में पुलिस के कहने पर उसने बापूजी के खिलाफ बयान दिया ।

दरअसल इस रिकॉर्डिंग में भूल से वह भाग भी आ गया था जिसे काटना था । इसमें वह बोलता है कि ‘‘मैंने बापूजी की कुटिया में कभी किसी लड़की को आते-जाते नहीं देखा ।’’ तो जाँच अधिकारी बोलती है कि ‘‘ऐसे भी लोग हैं जो बोलते हैं कि हमने ऐसा कुछ नहीं देखा पर यदि लड़की की शिकायत सच्ची साबित होकर बापू जेल जाते हों तो तुम ऐसा लिख दो कि हम सब जानते हैं । हम अदालत में आ के बोलेंगे, भले हमने कुछ नहीं देखा ।’’ जाँच अधिकारी उसे बोल रही है कि वे लोग ऐसा बोल रहे हैं तो तुम ऐसा-ऐसा नहीं बोल सकते हो क्या ? यह बात जाँच अधिकारी को अदालत में स्वीकारनी पड़ी ।
तो जो आश्रम से निकाले हुए लोग हैं उनको इन्होंने गवाह के रूप में खड़ा किया और उनसे शिकायत को सिद्ध करनेवाली बातें बुलवायीं और बचाव पक्ष की चीजों की या तो जाँच ही नहीं की या जाँच में कुछ बचाव पक्ष के पक्ष में आया तो अदालत के रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया ।

महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को किया गया नजरअंदाज

केस का पूरा निर्णय पढ़ा जाय तो उससे पता चलता है कि इतने वर्षों के विलम्ब के बाद शिकायत की गयी फिर भी उस विलम्ब को संज्ञान में न लेते हुए महिला का जो बयान है उसे ही सही मानकर सजा दी गयी है । जब इतने वर्षों की देरी होती है तो ऐसे में अदालत को जो सम्पोषक साक्ष्य (Corroborative evidence) हैं वे भी देखने चाहिए । देरी से शिकायत दर्ज करने के लिए जो कारण शिकायतकर्त्री ने बताये हैं वे भी मानने योग्य नहीं हैं । इस संदर्भ में बचाव पक्ष द्वारा कई दस्तावेज भी पेश किये गये थे । शिकायतकर्त्री महिला के निवेदन के अलावा अन्य कुछ भी उसका समर्थन नहीं कर रहा था । महिला के बयानों में अनेकों विरोधाभास हैं । चार्जशीट देखी जाय तो यह षड्यंत्र का केस था । अभियोजन पक्ष उसकी शिकायत को निःशंकरूप से सिद्ध नहीं कर पाया । इन सब चीजों को देखा जाय तो आगे जा के अपील में इसमें सकारात्मक परिणाम आयेंगे और हमें न्याय मिलेगा ऐसी हम उम्मीद करते हैं