दुनिया का सबसे विश्वसनीय स्रोत है श्रीमद्भगवत गीता जो नेतृत्व, नीति व प्रबंधन के बारे में बताता है और आज के आधुनिक गतिशील माहौल के लिए भी उपयुक्त है।

 

भगवद गीता मानव जाति के लिए एक सच्चा धर्मग्रंथ है। एक किताब के बजाय एक जीवित रचना है जिसमें हर युग के लिए एक नया संदेश और हर सभ्यता के लिए एक नया अर्थ है। -श्री अरबिंदो

 

प्रबंधन : शाब्दिक अर्थ

 

प्रबंधन यह जानने की कला है कि आप लोगों से क्या कराना चाहते हैं तथा यह देखना कि वे इसे सर्वोत्तम ढंग से कैसे करते हैं।

योग: कर्मसु कौशलम’…

 

यदि कोई व्यक्ति गीता के अर्थों का मनन चिंतन करे तो वह किसी भी परिस्थिति में सम रहकर सफलता प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। इससे न केवल करियर में वांछित सफलता प्राप्त हो सकती है बल्कि सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन में भी उन्नति हो सकती है। जब प्रबंधन की बात आती है तो बड़े बड़े दिग्गज भी श्रीमद भगवद्गीता की शरण लेते हैं ।

 

प्रबंधन के प्रमुख सूत्र : श्रीमद भगवद गीता

 

गीता किसी की सराहना या निंदा नहीं करती बल्कि मनुष्यमात्र की उन्नति की बात करती है और उन्नति कैसी ? एकांगी – द्विअंगी नहीं , वरन  सर्वांगीण उन्नति। कुटुम्ब का बड़ा जब पूरे कुटुम्ब की भलाई का सोचता है तब ही उसके बड़प्पन की शोभा है और कुटुम्ब का बड़ा तो राग-द्वेष का शिकार हो सकता है लेकिन भगवान में राग-द्वेष कहाँ ! विश्व का बड़ा पूरे विश्व की भलाई सोचता है और ऐसा सोचकर वह जो बोलता है वही गीता का ग्रंथ बनता है।

 

गीता में आए प्रबंधन सूत्रों की व्याख्या बड़े ही सरल शब्दों में संत श्री आशारामजी बापू ने की है:

 

  1. निर्भयता: श्रीमद्भगवत गीता के दूसरे अध्याय के 23वें श्लोक की व्याख्या करते हुए बापूजी समझाते हैं कि

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि.. आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते,

नैनं दहति पावक:.. आग जला नहीं सकती,

न चैनं क्लेदयन्त्यापो .. जल भिगो नहीं सकता,

न शोषयति मारुत:… वायु सुखा नहीं सकता

आपका आत्मा सदैव शाश्वत है इसलिए आपको निर्भय होना चाहिए। भय ही मृत्यु है और निर्भयता जीवन है ।

यदि सेनापति निर्भय नहीं होगा तो किसी छोटे-मोटे आदमी से प्रभावित होकर सेना को हार की खाई में धकेल देगा ।

 

  1. आत्मशक्ति जागृति: गीता का ज्ञान जिसके जीवन में उतरा, गीता उसकी हताशा-निराशा को दूर कर देती है । हारे हुए, थके हुए को भी गीता अपने आँचल में आश्वासन देकर प्रोत्साहित करती है । कर्तव्य-कर्म करने के मैदान में आया हुआ अर्जुन जब भागने की तैयारी करता है, ‘भीख माँगकर रहूँगा लेकिन यह युद्ध नहीं करूँगा ‘ ऐसे विचार करता है तो उसको कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा देती है और कर्म में से आसक्ति हटाने के लिए अनासक्ति की प्रेरणा भी देती है ।

 

  1. स्थिर बुद्धि: जो बीत गया उसकी चिन्ता छोड़ो। सुख बीता या दुःख बीता… मित्र की बात बीती या शत्रु की बात बीती… जो बीत गया वह अब आपके हाथ में नहीं है और जो आयेगा वह भी आपके हाथ में नहीं है। अतः भूत और भविष्य की कल्पना छोड़कर सदा वर्तमान में रहो। 

 

  1. कर्तव्य कर्म करने की विद्याः कर्तव्य कर्म कुशलता से करें। लापरवाही, द्वेष, फल की लिप्सा से कर्मों को गंदा न होने दें। आप कर्तव्य कर्म करें और फल ईश्वर के हवाले कर दें। फल की लोलुपता से कर्म करोगे तो आपकी योग्यता नपी तुली हो जायेगी। कर्म को कर्मयोग बना दें।

 

  1. संगठन के हित को प्राथमिकता दें :

कुशल नेतृत्व के लिए गीता से बढ़कर कोई शिक्षक नहीं हो सकता । श्रीकृष्ण अर्जुन को निज स्वार्थों की अपेक्षा समाज हित व सामूहिक भलाई के लिए युद्ध की सलाह देते हैं। यानी संगठन के नेतृत्वकर्ता को अपने लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज के हित या लाभ के लिए काम करना चाहिए। संगठन में व्यक्ति को निजी हित को संगठनात्मक हित के अधीन रखकर काम करना चाहिए।

 

उत्तम स्वास्थ्य के गुर सिखाती भगवद्गीता:

 

कर्म-क्षेत्र में कुशलता से बरतने की शिक्षाओं के साथ ही शरीर स्वास्थ्य का प्रबंधन भी गीता सिखाती है ।

 

गीता के छठें अध्याय के 17वें श्लोक में आता है :

 

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।

 

‘दु:खों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार–विहार करनेवाले का, कर्मो में यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है ।’

यहां केवल शरीर का स्वास्थ्य नहीं, मन का स्वास्थ्य भी कहा है ।

ना तो बहुत अधिक भूखमरी करें ना ही ठूँस-ठूँस कर खाएं । ना तो बहुत अधिक परिश्रम करें ना ही निष्क्रिय होकर पड़े रहें ।युक्तियुक्त आपका आहार विहार हो ताकि शरीर स्वस्थ व मन प्रसन्न रहे।

 

प्रत्येक परिस्थिति में सम रहे : श्रीमद भगवद गीता

 

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।

सुखद स्थिति आ जाय चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों । दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है । दृष्टि दिव्य बन जाय, फिर आपके सभी कार्य दिव्य हो जायेंगे । छोटे–से–छोटे व्यक्ति को अगर सही ज्ञान मिल गया और उसने स्वीकार कर लिया तो वह महान बनके ही रहेगा और महान–से–महान दिखता हुआ व्यक्ति भी अगर गीता के ज्ञान के विपरीत चलता है तो देखते–देखते उसकी तुच्छता दिखाई देने लगेगी ।

 

इस तरह श्रीमद भगवद्गीता हर परिस्थिति से निपटने के लिए आपको मजबूत बनाने की कुंजियां संजोए हुए हैं ।

 

गीता का सत्संग सुनने वाला बीते हुए का शोक नहीं करता है, भविष्य की कल्पनाओं से भयभीत नहीं होता, वर्तमान के व्यवहार को अपने सिर पर हावी नहीं होने देता और चिंता का शिकार नहीं बनता। गीता का सत्संग सुनने वाला कर्म-कौशल्य पा लेता है। – संत श्री आशारामजी बापू